BHARAT KI PAHCHAN: भारत देश की पहचान ‘अनेता में एकता लिए हुए है ‘, अभी भी बनी हुई है।

स्वतंत्र भारत के इतिहास में अभी तक कुल 132 बार राष्ट्रपति शासन लगाया जा चुका है, उस ‘‘अनुच्छेद 356’’ का महाराष्ट्र को टूल बनाकर दुरूपयोग करके, जिसे स्वयं डा. अम्बेडकर ने संविधान सभा में बोलते हुए ‘‘मृतपत्र’’ की संज्ञा दी थी। 51 बार इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में राष्ट्रपति शासन लगाया गया।

BHARAT KI PAHCHAN BLOG BY RAJEEV KHANDELWAL JI :- दशकों से ही नहीं बल्कि प्राचीन काल से ‘‘कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी’’ तक भारत ‘‘विविधताओं’’ के साथ ‘‘एकता’’ लिया हुआ देश है। इसका आधार संस्कृति, जीवन स्तर, रहन-सहन, वेशभूषा, भाषा-बोली, जाति, रंग रूप, समुदाय, धार्मिक आस्था इत्यादि क्षेत्रों में अनेकता व विविधता होने के बावजूद भी भारत की एक संगठित इकाई के रूप में ‘‘समग्र राष्ट्र’’ की पहचान रही है इसीलिए शायद दिया गया यह नारा, कथन ‘‘अनेकता में एकता’’ भारत की विश्व स्तर पर एक पहचान ‘‘उपरोक्त क्षेत्रों की विविधता’’ के कारण ही है।

वर्तमान राजनीती और संविधान

वर्तमान में उक्त विविधता को अन्य अनेक क्षेत्रों में विस्तार कर वर्तमान राजनीति, कानून व संविधान पर भी अंधा होकर भी लागू किया जाये तो, अतिशयोक्ति नहीं होगी। मतलब मामला जब ‘‘संविधान’’, ‘‘विधान’’ का हो अथवा राजनीतिक दलों की ‘‘पैंतरेबाजी’’ का हो, वहां पर भी एक रूप एक समानता के साथ अनेकता व विविधता भी है, जो हमारे विधान व राजनीति के रबर समान लचीलेपन को दर्शित-प्रदर्शित करती है। अभी झारखंड राज्य में जो कुछ भी घटित हुआ है, उसके गहरे मंथन से आप उक्त स्थिति को अच्छे से समझ सकते हैं।

राज्य्पाल का कार्य एक जैसा

सिद्धांत, संवैधानिक व कानूनी रूप से संविधान व विधान में ‘‘अनेकता’’ नहीं एकरूपता ही होती है। मतलब यह है कि देश में संविधान कानून 140 करोड़ भारतवासियों पर कुछ संवैधानिक अपवादों के साथ एकसा पूरे भारत वर्ष पर लागू होता है। इसी संविधान की एक व्यवस्था राज्यपाल है। उनका कार्यक्षेत्र, अधिकार व कर्तव्य प्रत्येक राज्य में एक जैसा ही हैै, चाहे व महाराष्ट्र, बिहार, झारखंड या पश्चिम बंगाल या अन्य किसी राज्य के राज्यपाल का हो। परन्तु ‘‘सब धान बाईस पसेरी नहीं होते’’।

देखिए; एक समान शक्ति व अधिकार होने के बावजूद व्यावहारिक रूप से धरातल पर इन चारों राज्यों में राज्यपाल की कार्य पद्धति, अधिकार और संविधान के प्रति उनकी शपथ एक होते हुए भी नजरे, इरादे कार्य शैली, विवेकाधीन निर्णय कैसे बदलती हुई नजर आती है या ‘‘नजर अंदाज’’ कर दी जाती है। ‘‘सब सच कहने लायक नहीं होते’’ इस पर जरा गहराई से अपनी नजर तो डालिए! तभी आप मेरे मन के भाव-भावार्थ को समझ पायेगेें।

इतिहास में पहली बार ऐसे हुआ

झारखंड में हेमंत सोरेन की सरकार के इस्तीफा देने के लगभग 40 घंटे के बाद चंपई सोरेन के नेतृत्व में नई सरकार को शपथ दिलाई गई और 40 घंटे तक जो कुछ नाटक चला, चलाया व रचा गया, वह सब आपके सामने है। देश के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है, जब ‘‘हिरासत’’ में एक मुख्यमंत्री को इस्तीफा देने राजभवन जाना पड़ा। वैसे मुख्यमंत्री रहते हुए वे देश के तमिलनाडु की जयललिता व बिहार के लालू प्रसाद यादव के बाद तीसरे मुख्यमंत्री है। वहीं यह भी पहली बार ही हुआ है, जिससे एक संवैधानिक संकट खड़ा हो गया, जिस पर शायद कानूनविदों व संविधान का पालन करवाने वाले प्राधिकारियों का कोई इस ओर ध्यान आकर्षित नहीं हुआ। परन्तु उच्चतम न्यायालय को तो इस संवैधानिक संकट का स्वयं संज्ञान लेना ही चाहिए था जैसा कि पूर्व में वह कई बार संविधान की रक्षा के रूप में पूर्व में स्वंतः संज्ञान लेकर खड़ा हुआ है। इसीलिए मुख्यमंत्री का इस्तीफा स्वीकार होने के बाद नई सरकार के गठन तक लगभग 40 घंटे झारखंड में कोई ‘‘शासन’’ ही नही रहा। राज्यपाल ने यहां एक बड़ी संवैधानिक गलती यह कर दी कि इस्तीफा स्वीकार होने के बाद उन्होंने तुरंत निर्वतमान मुख्यमंत्री से इस बात का एक लिखित अनुरोध ही नहीं किया कि जब तक कोई नई व्यवस्था हो नहीं जाती है, तब तक आप कार्यवाहक मुख्यमंत्री के रूप में कार्य करते रहे। अतः उक्त अवधि में न कार्यवाहक मुख्यमंत्री और न ही राष्ट्रपति शासन, मतलब ‘‘कोई शासन नहीं’’ था।

हेमंत सोरेन ने इस्तीफा देने के साथ ही चंपई सोरेन के नये नेता चुने जाने की जानकारी जब 43 विधायकों की सूची के समर्थन के साथ राज्यपाल को दी। साथ ही न केवल सशरीर विधायक प्रस्तुत करने अर्थात राज्यपाल के समझ बहुमत सिद्ध करने के लिए विधायकों की परेड़ कराने के लिए भी तैयार है, का कथन किया बल्कि बाद में 43 विधायकों का एक वीडियो भी जारी किया। तब भी राज्यपाल ने तुरंत सरकार बनाने का निमंत्रण क्यों नहीं दिया? जबकि मात्र गठबंधन के मुख्यमंत्री का ‘‘चेहरा’’ बदला गया, पार्टी व ‘‘गठबंधन बदला नहीं’’ गया। अंततः देश के सोशल मीडिया में इस बात की आलोचना होने पर 40 घंटे के बाद और कोई चारा न होने पर व ‘‘भरतपुर लुटवाने हेतु’’ नई ‘‘अनुकूल’’ परिस्थिति न बन पाने के कारण चंपई सोरेन को देर रात्रि शपथ ग्रहण करने का निमंत्रण दिया गया। राज्यपाल ने सरकार बनाने के निमंत्रण में 10 दिन के अंदर बहुमत सिद्ध करने का भी निर्देश दिया, जो संवैधानिक रूप से ‘‘सही नहीं’’ था। वैसे निर्देश बिहार के राज्यपाल ने नीतीश कुमार को नहीं दिया। झारखंड में पर बहुमत को चुनौती नहीं दी गई थी और न ही कोई अन्य दावा सरकार बनाने का किया गया था। साथ ही गठबंधन बदला या टूटा नहीं था।

झारखंड के राज्यपाल की भूमिका की तुलना आप बिहार राज्य जिसका ही एक भाग पूर्व में झारखंड था, के राज्यपाल की भूमिका से कर लीजिए। आप बिहार से बिलकुल विपरीत स्थिति पायेगें। संविधान की इस विविधता/भिन्नता का ही उल्लेख मैंने ऊपर किया है। आइये कैसे! इसे आगे देखते है। सरकार बदलने का यही ‘खेल’ इसके पूर्व बिहार में भी ‘‘खेला’’ गया। परन्तु वहां झारखंड जैसा कुछ नहीं हुआ। बल्कि वहां तो ‘‘हंसते हंसते हसनगढ़ बस गया’’। जबकि वहां चेहरे के साथ ‘‘दल व गठबंधन’’ भी बदला गया। जबकि झारखंड में सिर्फ मुख्यमंत्री का चेहरा बदला गया था, ‘‘दल या गठबंधन’’ नहीं। बावजूद इसके राज्यपाल ने बिना कोई समय गवाए मुख्यमंत्री पद पर मात्र 4 घंटे के भीतर ही नीतीश कुमार को ठीक उसी प्रकार शपथ दिला दी, जैसा कि महाराष्ट्र के राज्यपाल ने सुबह तड़के देवेन्द्र फण्डवीश को शपथ दिलाई थी। जबकि यहां पर दल व गठबंधन पहले जो विरोधी पक्ष था, वह अब सत्तापक्ष हो गया व जो पहले सत्ता पक्ष था वह अब विरोधी पक्ष हो गया। गठबंधन बदलने के कारण दलों की अदला बदली होने से नये दलो का समर्थन पत्र राज्यपाल को सौंपने के कारण कम से कम बहुमत के दावे की पुष्टि राज्यपाल को अवश्य करनी चाहिए थी। साथ ही मुख्यमंत्री को भी बहुमत सिद्ध करने का निर्देश भी देना था, जो नहीं दिया गया। जैसा कि बाद में झारखंड के मामले में राज्यपाल ने दिया। अब आप शायद समझ गए होंगे कि संविधान की विविधता-अनेकता के साथ एकता, एक ही संविधान, एक ही कानून, एक ही तरह की राज्यपाल की शक्तियां, परन्तु व्यवहार में दोनों जगह परस्पर विपरीत आचरण के साथ क्रियान्वयन होकर घटनाओं का पटापेक्ष हुआ।

स्वतंत्र भारत के इतिहास में अभी तक कुल 132 बार राष्ट्रपति शासन लगाया जा चुका है, उस ‘‘अनुच्छेद 356’’ का महाराष्ट्र को टूल बनाकर दुरूपयोग करके, जिसे स्वयं डा. अम्बेडकर ने संविधान सभा में बोलते हुए ‘‘मृतपत्र’’ की संज्ञा दी थी। 51 बार इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में राष्ट्रपति शासन लगाया गया। ‘‘100 चूहे खाकर बिल्ली हज को चली’’। उत्तर प्रदेश में अभी तक 10 बार लग चुका है, तो सबसे लम्बी अवधि 6 साल 264 दिन के लिए जम्मू-कश्मीर में लगा। वहीं सबसे कम दिन 7 दिन कर्नाटक व पश्चिम बंगाल में। दो नये राज्यों छत्तीसगढ़ एवं तेलंगना में अभी तक राष्ट्रपति शासन नहीं लगा है। देश का ऐसा कोई प्रधानमंत्री नहीं है, जिसके कार्यकाल में राष्ट्रपति शासन लागू न किया गया है, सिवाए इंद्रकुमार गुजराल व कार्यवाहक प्रधानमंत्री रहे गुलजारीलाल नंदा को छोड़कर। इस प्रकार लगभग 77 साल के स्वतंत्र भारत के इतिहास में लगभग 44 साल कांग्रेस का शासन अर्थात 57 प्रतिशत  रहा। जबकि लगे राष्ट्रपति शासन का कुल 172 प्रतिशत रहा। जबकि भाजपा का कुल कार्यकाल 16 वर्ष का रहा जबकि राष्ट्रपति शासन का प्रतिशत 106 रहा। इस अंतर को भी समझिए।

यहां पर भी एकता में विविधता दिखती है। अर्थात राज्यपाल के पद का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए, इस मामले में समस्त राजनीतिक पार्टी एक है। परन्तु विविधता ऐसी है कि समस्त राजनीतिक पार्टियां जब भी अवसर मिलता है, तो एक क्षण गवाए बगैर राज्यपाल का दुरूपयोग करने में हिचकती नहीं हैं। यहां पर आप मेरे उक्त कथन को ठीक कर सकते है, कि यहां पर भी विविधता नहीं है, बल्कि दुरुपयोग के मामले में भी समस्त राजनीतिक दल की मंशा से लेकर क्रियान्वयन तक सब ‘‘एक ही थैली के चट्टे-बट्टे है’’। ‘‘मेरा देश महान’’, एकता में विविधता या विविधता में एकता। इसको समझना शायद मुश्किल है।

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